केशव भट्ट (बागेश्वर)
(रिपोर्टर नवभारत टाइम्स, दैनिक हिन्दुस्तान)
‘इस बार की उत्तरायणी में तो कुछ भी नहीं है। सुनसान है सब जगह।बगड़ खाली,नुमाईश में नुमाईश की चीजें खत्म।सर्द रात का सहारा अलाव भी ठेकेदार खा जा रहा। मेले को तो खत्म ही कर डाला सब ने मिलकर सड़कें सब खाली पड़ी हैं। पता नी क्यों गाड़ियों को ही आने—जाने नही दे रहे हैं? मकर संक्रांति में शराब की दुकान बंद रहती थी, अब तो उसे भी खोला जाने लगा है।आम जन ने इन शराबियों का ही हुडदंग झेलना हुवा..’
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बागेश्वर में उत्तरायणी मेले से निराश हो वापस लौटते हुए हर किसी के जुबां पर ये बातें हैं। पंकू पगला उन्हें ये समझाते ही रह गया कि, ‘भई लोगो! इस बार जिले को ही ग्रहण लगा हुवा है। अब सूर्य का दक्षिणायन से उत्तरायण में तो आना लाजमी ही हुवा.’
पंकू पगले का भी कहना ठीक ही हुवा. वर्षों से खड़िया के लिए हिमालय की थाती चीर धन्नासेठ, माफिया, डॉन बनने की होड़ को न्यायपालिका का यदि ब्रेक नही लगता तो कुछ वक्त बाद तो ये होड़ हिमालय को ही उधेड़ने तक पहुंच जाती. सरकार कोई भी आए जाए लेकिन उनके लिए खनन माफिया ही सर्वोपरि होने वाला हुवा. एक ओर जहां खड़िया खदानों से सरकारों को करोड़ो का राजस्व मिलने वाला हुवा वही उप्परी कमाई से वो मालामाल भी अलग से होने वाले हुए. ऐसा भी नही है लोग आवाजें ना उठाते हों. लोगों की आवाजों को अखबार भी धार देने वाले हुए लेकिन ये आवाजें भी चंद पैंसो या धमकियों के बाद कुछ अंतराल के बाद बंद कर दी जाने वाली हुवी.
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खड़िया खनन के ईलाके एक तरह से चंबल के बीहड़ जंगल की तरह हुवे और इनमें विचरने वाले कोट—पैंट पहन मंहगी गाड़ियों में घूमने वाले चंबल के डांकू सरीखे हुए. इनकी पहुंच और पैंसों की ताकत के आगे सरकारी कारिंदे भी हर हमेशा इनके आगे—पीछे छोलिया नाच जैसा करने वाले हुवे. जनता मूक दर्शक बन सदियों से तमाशा देखती आ रही हुवी. खनन के बेदर्द इतिहास को यदि ढंग से बांचा जाए तो अनगिनत दस्यूओं की रूह कंपाने वाली कहानियां सामने आएंगी. खानों में काम करते हुए दफन हुए अनगिनत नेपाली मजदूर, खड़िया के पानी भरे गहरे गढ्ढों में डूबे बच्चों की रूहें आज भी अपनों को ढूंढते हुए इन इलाकों में सिसकते हुए भटकती रहती हैं. इन रूहों को तो ये भी मालूम नही कि उनके परिवारों को तो कबका पैंसा और बंदूक की नोक पर चुप करा दिया गया था.
खनन से जुड़े तबके का दुस्साहस इतना हो चला है कि, अभी हाल में ही न्यायालय के आदेश पर जांच टीम को ही प्रभावित करने की पुरजोर कोशिश करने में इन्होंने कोई गुरेज नही की. वो तो भला हो उन सभी का जो इनकी घुड़की में नही आए. सदियों से कर रहे वैध अवैध खनन को वैज्ञानिक ढंग से खनन की संज्ञा देने वालों के नाममात्र के लिए बनाए गए जिला खनिज फाउंडेशन न्यास भी भ्रष्टों की जेबों को ही भरने के काम आते रहा है. और कभी कभार खान दस्यूओं पर प्रशासन की छापेमारी की कार्यवाही महज खानापूर्ति ही रही. खान मालिक के खान की छापेमारी करने के बाद उस टीम के भी अजीब तर्क रहते थे.
मसलन.. खनन क्षेत्र में काम में लगे श्रमिक बिना हेल्मेट पहने खनन कार्य कर रहे थे. खनिकों के लिए शौचालय की समुचित व्यवस्था भी नहीं मिली. फस्टएड बाक्स गायब मिला. लिहाजा पट्टाधारकों के खनन कार्य व निकासी पर पूरी तरह रोक लगा दी जाती है. जब तक पट्टाधारक नियमों का पालन करना सुनिश्चित नहीं करता तब तक यह रोक जारी रहेगी. और यह रोक और कमी सरकारी महकम को पैंसा पटकने के बाद गायब हो जाने वाली हुवी.
हांलाकि खबरनवीस बीच—बीच में प्रशासन को चेताने के काम में लगे ही रहने वाले हुवे कि,
”जिले में नियमों को ताक पर रखकर खड़िया खनन किया जा रहा है. जिससे सबसे अधिक पर्यावरण को नुकसान पहुंच रहा है. इस ओर न तो शासन न ही प्रशासन कोई कार्रवाई कर रहा है. वहीं लगातार हो रहे खनन से गांवों पर भी खतरा मंडराने लगा है. कई खड़िया खानें एनजीटी के नियमों का पालन नहीं कर रही है. जिन पर अभी तक प्रशासन की नजर नहीं पहुंच रही हैं.
बेतहाशा जेसीबी मशीनों का प्रयोग हो रहा है. नियमों के अनुसार खुदान भी नहीं हो रहा है. जिससे भूस्खलन का खतरा बढ़ रहा है. जिस तरह खनन से पर्यावरण को नुकसान हो रहा है उसको बचाने के लिए अब तक कोई ठोस कदम नहीं उठाए जा रहे हैं. हाल यह है कि कुछ जगहों पर लीज समाप्त होने के बाद भी अवैध तरीके से खड़िया खनन किया जा रहा है. नियमों को ताक पर रखकर हो रहे अवैध खनन से जिले के कांडा, कपकोट, खरेही पट्टी, पुंगर घाटी के 42 गांव से अधिक खतरे में है.
शासन-प्रशासन खड़िया खनन के नाम पर हो रहे गोरखधंधे पर आंख मूंदे रहता है. उसे राजस्व तो मिलता है, वहीं मोटी कमाई भी होती है. इसके कारोबार ने भले ही इससे जुड़े लोगों को को समृद्ध किया हो, लेकिन दशकों से हो रहे खनन के कारण अब गांवों की बुनियाद खोखली हो गई है. आबादी से दूर नाप खेतों में होने वाला खनन धीरे-धीरे घरों तक पहुंच रहा है. इससे कई स्थानों पर गांवों को खतरा पैदा हो रहा है. खड़िया निकालने के बाद बने विशाल गड्ढों में दुर्घटनाएं होती रहती हैं. हाल के वर्षों में मशीनों का प्रयोग बढ़ने से खतरे भी बढ़ रहे हैं.”
लेकिन ज्यादातर पत्रकारों के मालिक—संपादकों तक खनन माफिया की मजबूत पकड़ होने पर खबरें या तो सिरे से ही गायब हो जाती रही या फिर अखबार के ढांक एडिशन में किसी कोने में छोटी सी अर्थहीन सी दुबकी हुवी लगने वाली हुवी.
अभी उच्च न्यायालय ने स्वत: संज्ञान लेकर दो न्यायमित्रों को हकीकत जानने के वास्ते खनन क्षेत्रों में भेजा तो उन्होंने चौंकाने वाली रिपोर्ट न्यायालय को दी. कोर्ट कमिश्नर की रिपोर्ट के मुताबिक, खड़िया खनन करने वालों ने वनभूमि के साथ ही सरकारी भूमि में भी नियम विरुद्ध जाकर खनन किया है. खड़िया खनन की वजह से पहाड़ी दरकने लगी हैं. जिसकी वजह से कभी भी कोई बड़ा हादसा हो सकता है. न्याय मित्रों द्वारा इसके कई फोटोग्राफ और वीडियो रिपोर्ट कोर्ट में भी पेश की गई. रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीणों ने दावा किया कि उन्होंने खनन पट्टेधारकों को खड़िया खनन की एनओसी नहीं दी थी. फर्जी तरीके से उनकी एनओसी बना ली गई.
बहरहाल..! कोर्ट के खनन बंद करने के साथ ही खनन में लगी सभी मशीनों को जब्त करने के आदेश के बाद पुलिस अधीक्षक चंद्रशेखर आर घोडके ने समूची पुलिस टीम को रात में ही लगाकर समूचे खनन क्षेत्र में लगी 124 पोकलैंड व जेसीबी मशीनें सीज करवा दी. कोर्ट ने 160 खनन पट्टे धारकों को भी नोटिस जारी कर जवाब दाखिल करने को कहा है.
जिले में फिलहाल खड़िया खनन बंद है और खनन की यह रोक कब तक रहेंगी ये कहना मुश्किल है. बुरी तरह से बौखलाए खनन पट्टेधारक सरकार पर दबाव बनाए हुए हैं.
बागेश्वर जिले में खड़िया लाबी इतनी ताकतवर है कि पूर्व में जब बागेश्वर के जिलाधिकारी मंगेश घिल्डियाल ने खड़िया का अवैध तरीके से कारोबार करने वालों पर नकेल कसना शुरू किया तो उनका ही तबादला कर दिया गया. बहरहाल खड़िया के कारोबार से खान मालिक, प्रशासन, सरकारों समेत नेपाली मजदूर, क्षेत्र के राशन दुकानदार, छुट्टभैये नेता, राजस्व कर्मचारी, वन महकमा, पुलिस, ट्रक वाले, ढाबे वाले, मिस्त्री आदि सभी फल फूलने वाले हुवे. अभी सबकी गांधी वाली चैन टूटी पड़ी है. जिसे जोड़ने के लिए हर कोई एकजुट हो अपनी—अपनी ओर से जोर आजमाइश में लगे हैं.
बागेश्वर जिले के खड़िया खदानों से प्रतिवर्ष लगभग चार लाख मीट्रिक टन से अधिक खड़िया निकाली जाती है. जिससे इन खदानों से हर साल लगभग 300 करोड़ तक का कारोबार होता है. खड़िया को ट्रकों से सीधे मैदानी क्षेत्रों में भेज दिया जाता है, जहां से इसका पाउडर बनाकर टेलकम पाउडर, क्रीम, टूथपेस्ट, डिटरजेंट, साबुन सहित सौंदर्य प्रसाधन बनाने वाली फैक्ट्रियों और पेपर मिलों को सप्लाई किया जाता है. बागेश्वर जिला जोन फाइव में आता है जो भूकंपीय दृष्टि से अतिसंवेदनशील है. खनन क्षेत्र के आस-पास भूस्खलन के कारण पुंगर घाटी, कांडा, कपकोट, खरेही पट्टी के दर्जनों गांव खतरे की जद में हैं. कहीं प्राकृतिक तो कहीं मानव जनित कारणों से गांवों पर खतरे हर साल बढ़ते जा रहे हैं. हालात यह हैं कि हर साल लाखों टन खड़िया निकालने से पहाड़ के गांव खोखले होते जा रहे हैं.
आसान तरीके से पैसे कमाने के चक्कर में खड़िया खानों के लिए होड़ मची है. इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले एक दसक में जिले में दो गुने से अधिक खड़िया खदानें खुल चुकी हैं. उत्तराखंड बनने के बाद से जिस तरह से सभी सरकारें शराब को सर्वोपरि आर्थिक आधार मान पहाड़ के साथ ही नदियों का सीना चीरने वालों को गोद में ही बिठाती रही हैं उससे लगता नही कि हिमालय को भी ये दस्यू बख्शेंगे..!!
नोट: वीडियो और फोटो पुरानी हैं. तब इन्हें बमुश्किल से रिकार्ड किया गया. दशकों पहले जब ये हाल थे तो अब क्या होगा अंदाजा लगाया जा सकता है.
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