मौत पर राजनीति बंद करें

-सुदेश आर्या

“मोक्ष” हिन्दू धर्म में पुनर्जन्म की अवधारणा है और यह धार्मिक विश्वास है कि व्यक्ति को 84 लाख योनियों/गर्भ में भटकने के बाद अर्थात मनुष्य के रूप में जन्म लेने से पहले वह 84 लाख बार अलग-अलग योनि, अर्थात अलग अलग जीव के रूप में जन्म ले चुका है।

ऐसी मान्यता है कि मानव जीवन भर धार्मिक अनुष्ठान, तपस्या और योग करके “मोक्ष” प्राप्त करता है इसके बाद वह पुनर्जन्म के इस चक्र से मुक्ति मिल जाती है।

पंडित धीरेन्द्र शास्त्री ने कुंभ के भगदड़ में मारे गए लोगों को इसी “मोक्ष” की प्राप्ति की बात की थी जिसपर पूर्व में शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद ने भी निंदा की, कि अगर दुर्घटनाग्रस्त होकर, दबकर कुचलकर मर जाए तो क्या उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाएगी?

गंगा जमुना से मोक्ष प्राप्त करने की शास्त्रों में पूरी एक विधि है और “निर्णय सिंधु” में इस पूरी प्रक्रिया को समझाया गया है। हिंदू धार्मिक अनुष्ठानों और संस्कारों से जुड़ी जानकारी है। यह किताब बताती है कि व्रत, स्नान, शौच और धार्मिक अनुष्ठान करते समय किन नियमों और विधियों का पालन करना चाहिए और इसमें भी मोक्ष प्राप्त करने की पूरी एक विधि है। ऐसे ही एक और किताब है “धर्म सिंधु” इसमें भी मोक्ष प्राप्त करने की पूरी एक विधि है जिसे “श्री विद्या” कहा जाता है। बिना “श्री विद्या” लिए मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती।

इसमें जीवन के एक उम्र के बाद यह प्रण लिया जाता है कि अब गंगा यमुना के संगम पर चल कर ही प्राण त्यागना है और शेष जीवन वह वहीं रह कर “श्री विद्या” के अनुसार धार्मिक अनुष्ठान और विधियां करता रहता है और वहीं प्राण त्याग देता है।

तब कहीं जाकर शास्त्रों के अनुसार मोक्ष प्राप्त करता है, और उसे पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति मिल जाती है और उसकी आत्मा सीधे स्वर्ग पहुंच कर शांत हो जाती है।

कहने का अर्थ यह है कि सिर्फ़ तट पर किसी दुर्घटना के कारण मृत्यु पाने के बाद मोक्ष प्राप्त होगा ऐसा किसी शास्त्रों में नहीं लिखा है, इसके बावजूद महापंडित धीरेन्द्र शास्त्री सबको मोक्ष प्रदान करवा रहा है‌।

इस्लाम में पुनर्जन्म का कोई कांसेप्ट नहीं। पैदा हुए, जीवन जीकर मर गए, बात ख़त्म। अब कब्र में कयामत तक इंतज़ार करो। क़यामत के बाद आखिरत के दिन हर किसी के जीवन के अच्छे और बुरे कामों का हिसाब किताब होगा और फ़िर जन्नत और जहन्नुम का निर्धारण होगा।

इस्लाम में इसीलिए संन्यास धारण करने की कोई व्यवस्था नहीं है और जीवन के अंत तक परिवार, खानदान और समाज में मुसलमान के दीन और ईमान की परीक्षा होती रहती है।

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