– सुदेश आर्या
जब इंसान का पेट भर गया तब उसकी दिमागी भूख भड़की। इंसान को पता चला कि पेट की भूख तो फिर भी शांत हो जाती है लेकिन दिमाग को तो जितना चारा दो, कम पड़ता है। कुछ कंद-मूल-फल खाकर भी अपना पेट भर लेने वाले इंसान को समझ नहीं आया कि उसके दिमाग में जो ये बेचैनी उठ रही है ये क्यूँ है? इस खलबली की वजह क्या है? इसका इलाज क्या है? दिमागी भूख से बेचैन हुआ इंसान अपने आपे से बाहर हुआ जा रहा था।

उसकी इस बेचैनी का इलाज भी उसके अंतर्मन ने ही किया। उसके अन्दर एक बिजली कौंधी होगी, मन ने उसको सहला कर समझाया होगा, उसे कुछ कहने की ख्वाहिश हुई होगी, उसकी मर्जी के बिना उसका हाथ उठा होगा, और एक पत्थर को उठा उसने दीवार पर कुछ लकीरें खींची होंगी।
इन लकीरों के माध्यम से उसने क्या कहा? नया कुछ नहीं, बस खाना तलाशने की अपनी जद्दोजहद को एक तस्वीर दी। शिकार करते कुछ चित्र बना दिए। पर इन चंद लकीरों ने एक चमत्कार कर दिया।
उस आदि मानव के अन्दर की बेचैनी शांत हो गयी। जिस खलबली से वो महीनों परेशान रहा, वो गायब हो गयी। मन को तसल्ली मिली और चेहरे पर मुस्कान आई। मुस्कुराता तो वो पहले भी रहा होगा, पर ये मुस्कान इस मायने में अलग थी कि इस बार ना उसने कोई शिकार किया, ना किसी से संसर्ग किया और ना ही उसको कोई बच्चा हुआ। दीवार पर चंद आड़ी-तिरछी रेखाओं के अलावा मूर्त रूप में ऐसा कुछ नहीं था जिसे दिखा कर वो कोई बड़ी उपलब्धि बता सके, लेकिन फिर भी वो खुश था, शांत था, असीम सुख से भरा हुआ, अपने आप में ही मुस्कुराता हुआ।
और संभवतः यूँ, जीवन से लबालब इस इकलौते ग्रह के सबसे विकसित जीव को एहसास हुआ कि उसने कुछ ऐसा खोज निकाला है जो उसे अपार खुशियाँ देगा। दमकते सूरज से संतुलित दूरी पर टिके इस नीले ग्रह पर एक विचार ने जन्म लिया, जिसे आज हम ‘कला’ के नाम से जानते हैं।
एक शानदार जूता बनाना भी कला है और एक मीठा गीत गाना भी, कोई अगर घर की पुताई तरीके से कर दे तो वो भी कलाकार होगा और महज कुछ शब्द लिखकर किसी को मोहित कर दे वो भी, स्वादिष्ट भोजन पकाना भी कला है और मिटटी के बर्तन बनाना भी। कला को हम सीमाओं में बाँध कर नहीं देख सकते। पूरा जीवन इसमें समाया हुआ है।
कुम्हार के घूमते चाक पर मिट्टी की खूबसूरत कलाकृति जब उभर कर आती है तो वो कैसा आनंद देती है ये तो देखने वाला ही बता सकता है। एक कार्टून जब अपनी कुछ लकीरों से अपने भावों को जीवंत कर देता है तो उसको कैसी सुखद अनुभूति होती है, यह तो वही जान सकता है।
‘सकारात्मक’ शब्द महत्वपूर्ण है। मन में भावनाएं उमडें लेकिन वो पॉजिटिव होनी चाहिए और यहाँ इस बात को भी ध्यान में रखा जाए कि रोना नेगेटिव नहीं होता है। अगर कोई पेंटिंग देखकर, या कोई गीत सुनकर, या कोई कविता पढ़कर हम रो पड़ें, तो इसमें कोई बुराई नहीं है। सही अर्थों में रोना एक बेहद पॉजिटिव इमोशन होता है। निगेटिविटी तो वो है कि जब कोई फिल्म देखकर हम नफ़रत से उबल पड़ें, किसी कविता को सुनकर बेवजह आंदोलित हो जाएँ, कोई किताब हमें किसी समुदाय के खिलाफ भड़का दे तो ये कला के निकृष्ट रूप है।
समाज की सबसे निचली पायदान पर बैठी उस बूढ़ी और बेबस अम्मा के बारे में सोचने पर मजबूर नहीं कर रही है, रूप-रंग-पहचान में अपने से अलग लोगों के प्रति जुड़ाव पैदा नहीं कर रही है, उसको सकारात्मक रूप से ख़ुशी नहीं दे रही है, उसका स्वस्थ मनोरंजन नहीं कर रही है तो ऐसी कला को रचने का और ऐसे कलाकार को होने का कोई हक़ नहीं। कला वही है जो अपने मक़सद को पूरा करे, बाकी सब अंधाधुंध तरीके से पैदा किये जा रहे कचरे के अलावा और कुछ नहीं।
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